नित भोर मैया जलक अर्घ सँ सुरुज के करे प्रणाम
सन्तान हमर हो प्रबल प्रतापी करे मिथिला मे नाम
मिथिला मैथिलिक खातिर बढे ओ सदिखन आँगा
सभ के बान्हे एक सूत्र मे बुने एहन प्रेमक धागा
अपन माटि पानी के बुझे सटाकऽ राखे छाती
ककरो अनिष्ट नहि सोँचे जरबैत रहे प्रेमक बाती
हमर भक्ति तोहर शक्ति तोरे पर टिकल काया
समयसँग घुमी तोरे चारुकात देखा अपन माया
न्यायक तराजू एक रंग के लेने रहे ओ हाथ मे
डंकाक चोट पऽ विजय के पाग चमकैत रहे माथमे
विनित ठाकुर
मिथिलेश्वर मौवाही –६, धनुषा
मिथिलाक्षर (तिरहुता) लिपि